सम्राट अशोक जैसी है संत पीपाजी के राजा से संत बनने की कहानी
Santpeepaji
-फिरोजशाह तुगलक को हराकर चल पडे थे वैराग्य की ओर
-खींची चौहान वंश के राजा पीपाप्रताप कबीर और नानक के थे गुरूभाई
झालावाड। गगरोन के संत पीपानंदाचार्य का पांच दिवसीय जयंती महोत्सव 19 अप्रेल से शुरू होने जा रहा है। मध्यकाल में भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों में से एक रामानदाचार्य के शिष्य पीपानंदाचार्य देश में जाने माने संतों में से एक हैं। उन्होंने संत कबरी, रैदास, संत धन्ना भगत, सेन जी महाराज, नरहरिदास जैसे महान संतों के साथ समय गुजारा। वे उच्च कोटि के दार्शनिक और योगी थे।
संत पीपानदाचार्य गढ गागरोन के राजा थे जो महज तीस वर्ष की आयु में राजपाट छोडकर वैरागी हो गए। बताया जाता है कि उन्होंने इसवी सन 1380 से लेकर 1408 तक गागरोन में शासन किया। वे खींची चौहान वंश के राजपूत थे। वैराग्य से पूर्व दौरान राजा पीपा प्रताप ने कई युद्ध लडे। चूंकि रणथम्भोर और गागरोन हाडोती और मालवा के सुदृढ किले थे। जो आगरा और दिल्ली की सल्तनत के लिए मालवा, गुजरात और दक्षिण के अभियानों बाधा बने हुए थे। इस कारण गागरोन पर आक्रमण होना उसकी नियति बन गया था। पीपाजी के जीवन में दो युद्ध प्रमुख माने जाते हैं। एक युद्ध यवन सेना पति लल्लन पठान के साथ और दूसरा 1378 में फिरोजशाह तुगलक के साथ होना बताया जाता है। आहू और कालीसिंध के संगम पर हुए इस युदध में फिरोजशाह की पराजय हुई और भारी क्षति के साथ उसे वापस लौटना पडा। लेकिन क्षति राजा पीपाप्रताप की भी कम नहीं हुई। लाशों के ढेर लग गए। मान्यता है कि हजारों सैनिकों की मौत देखकर राजा पीपा प्रताप का मन क्षुब्ध हो गया और वैराग्य की और बढ चला।
पीपा प्रताप देवी भगवती के परम भक्त थे। अब वे देवी से वैराग्य की मांग करने लगे। बताया जाता है कि एक दिन देवी प्रकट हुई और पीपाजी को कहा कि वे विजय और सभी प्रकार के ऐश्वर्य तो दे सकती है। लेकिन माया से मुक्ति देना उनके वश में नहीं है। बताया जाता कि सांसारिक माया से मुक्त होने के लिए देवी ने उन्हें काशी जाकर संत रामानंदाचार्य का शिष्य बनने का आदेश दिया।
इसके बाद पीपाजी राजपाट छोडकर काशी चले गए और संत रामानदाचार्य के शिष्य बन गए। बाद में रामानंदाचार्य अपने शिष्यों के साथ स्वयं गागरोन आए आए और राजा पीपाप्रताप को वैराग्य की दीक्षा दी। बताया जाता है कि इस दौरान संत कबीर, संत रैदास, धन्ना भगत, सेनजी महाराज, गोस्वामी तुलसीदास के गुरू संत नरहरिदास जैसे रामानदाचार्य के प्रमुख 40 शिष्य भी गागरोन आए। यहां उन्होंने पीपाजी को संत पीपानदाचार्य के रूप में और उनकी सबसे छोटी रानी स्मृति सोलंकी को सीता सहचरी के रूप् में वैराग्य की दीक्षा दी। इसके बाद वे दोनों संत मंडली के साथ गुजरात दõारिका की और चल पडे। पीछे गागरोन की गददी उन्होंने अपने भतीजे को सौंप दी।
इसके बाद संत पीपाजी के जीवन का अधिकाश समय दõारिका और गुजरात में बीता। वे गाव-गर घूमते और सत्संग करते। संतों के साथ समागम करना और लोगों को सद्मार्ग की ओर ले जाना उनका लक्ष्य बन गया था। उन्होंने कई कुटिल और धूर्त लोगों के जीवन को अपने व्यवहार से बदला और सद्मार्ग की ओर प्रेरित किया। इस दौरान उनके जीवन में कई चमत्कार की कहानियां भी चर्चा में आती है।
संत पीपाजी का अंतिम समय गढ गागरोन के निकट आहू और कालीसिंध नदी के संगम पर रमणीक स्थान पर गुजरा। अंतिम समय में उन्होंने यहीं रहकर योग और ध्यान की साधना की। साथ ही उनके दर्शन को संकलित किया। कई पदों की रचना उन्होंने इसी आश्रम में बैठकर की। पीपाजी दõारा रचे गए कई पद बाद में गुरूनानक देवजी ने गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किए। बताया जाता है कि स्वयं गुरूनानाक देवजी भी पीपाधाम आए और यहां उन्होंने कई दिन गुजारे। यहीं पीपाजी की समाधि है जहां हर साल उनका जयंती महोत्सव मनाया जाता है।
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