जातियों के भंवर में फंस गई देश की कश्ती!
आज देश में प्रत्येक जाति को आरक्षण चाहिए। ज्यादा से ज्यादा आरक्षण चाहिए। कोई दिमाग लगाने को तैयार नहीं है कि न केवल आरक्षण की अपितु सरकारी नौकरियों की भी एक सीमा है! इस समय जिन भी जातियों को कुल मिलाकर पचास प्रतिशत के आसपास आरक्षण मिला हुआ है, यदि केवल उन्हीं को सौ प्रतिशत आरक्षण दे दिया जाए तो क्या उन समुदायों के समस्त नौजवानों को नौकरियां मिल जाएंगी!
जिन दिनों देश को आजादी मिली थी, उन दिनों प्रदीप का गाया एक गीत बड़ा प्रसिद्ध हुआ था- हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के।
ऐसे संभाल कर रखा हमने आजादी की कश्ती को! आजादी मिले अभी सौ साल भी नहीं हुए हैं कि चारों ओर से जाति-जाति की पुकार सुनाई दे रही है। हर तरफ से आरक्षण का शोर है। हर तरफ बेरोजगारों की भीड़ खड़ी है और अपनी-अपनी जाति के नाम पर नौकरी मांग रही है।
राजनीतिक दलों ने कभी अजगर बनाकर, कभी एमवाई का नारा लगाकर तो कभी पीडीए बनाकर देश में जातिवाद का भयानक तूफान खड़ा कर दिया है।
मण्डल कमीशन लागू होने के बाद से देश की नैय्या दिन प्रति दिन जातियों के भंवर में गहरी धंसती जा रही है। बिहार, यूपी, हरियाणा, पंजाब एवं तमिलनाडू आदि विभिन्न प्रांतों में ताल ठोक रहे क्षेत्रीय दलों की तो उत्पत्ति ही जातीय वोटों के गणित पर हुई है।
लगभग समस्त क्षेत्रीय दलों को जीवन दान अर्थात् वोट और सत्ता जातीय उन्माद फैलाकर प्राप्त होते हैं किंतु अब तो देश पर दीर्घकाल तक शासन करने वाले कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल ने भी जातीय जनगणना के नाम पर जातीय उन्माद को बढ़ाना आरम्भ कर दिया है।
यह जातीय उन्माद हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा। इस उन्माद के कारण हम एक दूसरे के दुश्मन जैसा व्यवहार करने लगे हैं। राजनीतिक दल एक दूसरे से लड़ें तो बात समझ में आती है कि इन्हें सत्ता छीननी है किंतु जातीय उन्माद में फंसकर जनता आपस में लड़-मर रही है।
आज देश में प्रत्येक जाति को आरक्षण चाहिए। ज्यादा से ज्यादा आरक्षण चाहिए। कोई दिमाग लगाने को तैयार नहीं है कि न केवल आरक्षण की अपितु सरकारी नौकरियों की भी एक सीमा है! इस समय जिन भी जातियों को कुल मिलाकर पचास प्रतिशत के आसपास आरक्षण मिला हुआ है, यदि केवल उन्हीं को सौ प्रतिशत आरक्षण दे दिया जाए तो क्या उन समुदायों के समस्त नौजवानों को नौकरियां मिल जाएंगी!
जाति आधारित आरक्षण का अर्थ है कि आरक्षित समुदाय के लोगों में उनकी जाति के कारण सामाजिक एवं आर्थिक समस्याएं उत्पन्न हुई हैं।
यदि जाति ही समस्या है तो देश में लाखों ब्राह्मण परिवार निर्धनता की रेखा से नीचे जीवन यापन क्यों कर रहे हैं? क्षत्रिय समुदाय के लाखों परिवार मजदूरी करके जीवन यापन क्यों कर रहे हैं? प्रतिवर्ष वैश्य जाति के लोग व्यापार में घाटा खाकर और कर्ज के जाल में फंसकर आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?
प्राचीन हिन्दू समाज में जातियों का निर्माण व्यक्ति द्वारा किए जा रहे कार्य के आधार पर हुआ था। आजादी से पहले तक हम लोग अपनी जाति अथवा परिवार के द्वारा हजारों वर्षों से किए जा रहे कामों को करते आ रहे थे। उसी के आधार पर हम बढ़ई, सुनार, कुम्हार, मोची, तेली, नाई, दर्जी, बनिया, ब्राह्मण या राजपूत कहलाते थे।
आजादी के बाद इन सबका पैतृक व्यवसाय छुड़वाकर तथा जबर्दस्ती पढ़ा-पढ़ाकर नौकरियों की लाइनों में लगा दिया गया और जब अपेक्षित संख्या में नौकरियां नहीं मिलीं तो समाज में आरक्षण का भूत खड़ा किया गया।
अब तो आरएसएस ने भी जातीय जनगणना की आवश्यकता स्वीकार कर ली है। कुछ दिन पहले ही राहुल गांधी ने कहा था कि देश में जातीय जनगणना होगी, ऑर्डर आ गया है। राहुल गांधी कौनसे ऑर्डर की बात कर रहे थे!
कहा नहीं जा सकता कि जातीय जनगणना से कौनसी नई समस्याएं खड़ी होंगी क्योंकि हिन्दू समाज को जातियों के नाम पर लड़वाने का अधिकांश काम तो पहले ही पूरा हो चुका है। अब तो एस सी को एस सी से, एसटी को एस टी से और ओबीसी को ओबीसी से लड़वाना ही बाकी रहा है। संभवतः जातीय जनगणना से ऐसा ही कुछ भयानक परिणाम निकले!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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