वसुंधरा की झालावाड में गैर मौजूदगी, अटकलें और मायने
प्रद्युम्न शर्मा
झालावाड। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के गृह क्षेत्र से परिवर्तन संकल्प यात्रा निकाली गुजर गई। लेकिन यह पहला मौका है जब वसुंधरा अपने क्षेत्र के किसी भी बडे राजनैतिक कार्यक्रम में अनुपस्थित रहीं। उनकी इस अनुपस्थिति के राजनैतिक तौर पर कई मायने निकाले जा रहे है।
राजे सन् 1989 यानी गत 33 सालों से झालावाड़ का राजनीतिक तौर पर नेतृत्व कर रही है। पहले पांच बार झालावाड-बारां लोकसभा सीट से सांसद रहीं। जबकि 2003 में पहली बार मुख्यमत्री बनने के बाद से तो वे ही झालावाड की अकेली माई बाप है। उनके अलावा गत बीस साल के दौरान कोई अन्य राजनीतिक चेहरा सामने नहीं आया। सत्ता और संगठन के सभी कार्यक्रमों की अगुवाई खुद राजे और उनके पुत्र दुष्यंत सिंह ही करते रहे हैं। पूर्व के तीन विधानसभा चुनावों में वे प्रदेश के साथ ही वे जिले का नेतृत्व करती रहीं। बीस साल में यह पहला मौका है जब किसी पॉलिटिकल मूवमेंट से वो गैर मौजूद रही।
हालांकि इसको लेकर लगाई जा रही अटकलों पर पार्टी नेताओं ने सफाई दी है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अटकलों को खारिज किया है। उन्होंने कहा कि पार्टी में सब ठीक है। भाजपा न केवल देश बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है। पार्टी में हर कोई एकजुट होकर काम कर रहा है और भाजपा यहां सत्ता में वापसी करेगी।
उधर गुरूवार को प्रेस वार्ता में भी पूर्व शिक्षा मंत्री वासुदेव देवनानी ने सफाई दी कि राजे पार्टी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है, उनके पास बडी जिम्मेदारी है। जहां तक परिवर्तन यात्रा का सवाल है वे चारों यात्राओं की शुरूआत के मौके पर उपस्थित रही है। झालावाड और बारां में उनके पुत्र सांसद दुष्यंत सिंह यात्रा का नेतृत्व कर रहे है।
ये पार्टी की ओर से दी गई सफाई है। लेकिन राजे का इस मामले में अभी तक कोई वक्तव्य नहीं आया है। वे चाहतीं तो सोशल मीडिया या अन्य माध्यम से भी संदेश दे सकती थी। लेकिन उनकी खामोशी ने कई सवाल खडे कर दिए हैं।
क्या ये माना जाए कि वे प्रदेश की राजनीति से क्विट कर रहीं है। लेकिन राजनीति में तो कुछ भी स्थाई नहीं होता। जिम्मेदारियां बदलना तो सामान्य बात है। यदि वे किसी अन्य भूमिका में जा रहीं है तो भी चुनाव में उनकी अरूचि खासकर झालावाड में भी गैर मौजूदगी के क्या मायने हैं। राजनीति में किसी खास ओहदे के लिए ही सब सक्रिय नहीं रहते। लोकतंत्र में ओहदों का निर्धारण तो जनता करती है। ऐसा हुआ भी। 2008 और 2018 के चुनाव में भाजपा को प्रदेश में हार का मुंह देखना पडा। इस दौरान भी उनका झालावाड से लगाव कभी कम नहीं हुआ।
अभी तक प्रदेश में केन्द्रीय नेतृत्व ने किसी को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित नहीं किया है। पार्टी इस बार मोदी के चेहरे पर चुनाव मैदान में है। जबकि पिछले तीन चुनाव से मुख्यमंत्री के तौर पर राजे को सामने रखकर पार्टी चुनाव लडती रही है। इस बार भी मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हीं को आगे रखकर चुनाव लडा जाए, इसके लिए केन्द्रीय नेतृत्व को राजी करने के लिए राजे अंत तक प्रयासरत रहीं। लेकिन अंत तक हालात इस स्थिति के अनुकूल नहीं बन पाए। पार्टी के अन्य प्रदेश स्तरीय नेता उनके नेतृत्व में आगे बढ़ने को तैयार नहीं, दूसरी और अन्य नेताओं को दरकिनार करके स्वयं राजे के लिए भी चुनाव में उतरना आसान नहीं। ऐसी स्थिति में दोनों धडों को साथ लेकर चुनाव लडने का पार्टी के पास एक ही विकल्प था, वो था केवल मोद फेस।
फिलहाल पार्टी मोदी फेस पर चुनाव लड रही है, पार्टी जीती तो मुख्यमंत्री कौन होगा बादे में अभी तक तो कुछ नहीं कहा जा सकता।
इससे पूर्व 2003, 2008, 2013 व 2018 के चार विधानसभाओं चुनावों से पूर्व भी प्रदेश में ऐसी ही यात्राएं निकाली। 2003 में आक्रामक चुनाव अभियान के तौर पर राजे ने ही परिवर्तन यात्रा की अगुवाई की। इस दौरान पार्टी के राजस्थान ही नहीं बल्कि देश भर के कई नेता झालावाड में डेरा डाले रहे। वो एक ऐतिहासिक चुनाव था जिसमें खुद अमित शाह और गुजरात के पांच विधायक राजे के चुनाव प्रचार में यहा रहे। प्रमोद महाजन, राजीव प्रताप रूढी, शाहनवाज हुसैन, धर्मेन्द्र, हेमा मालिनी, जैसे स्टार प्रचारकों ने उनके लिए झालावाड और प्रदेश में प्रचार किया। प्रदेश के तमाम नेता यात्रा में साथ रहे। भाजपा के लिए वह पहला मौका था जब 120 सीटों के बहुमत साथ सत्ता में आई थी। चेहरा तब भी बदला था। भैरोंसिंह शेखावत की जगह वसुंधरा राजे ने ली थी।
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