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कौन था मालवा का अंतिम हिन्दू सम्राट जिसने अकबर के छुडाए थे छक्के

उनतीस दिन का अंतिम हिंदू राजा हेमू विक्रमादित्य’

डॉ बालाराम परमार हंसमुख

हेमू विक्रमादित्य मालवा प्रांत का अंतिम हिंदू राजा था जिसने उन्नतीस दिन दिल्ली के लाल किले पर कब्जा कर राज किया था। यह वही हिंदू सम्राट है जिसने पानीपत की दुसरी लड़ाई 1556 में  अकबर के छक्के छुड़ा दिए थे। ऐसे हिन्दू योद्धा को  इतिहास में वह स्थान नहीं मिला, जिसका वह हकदार था। इस महान योद्धा के बारे में अकबर के चाटुकार अबुल फजल और इतिहासकार बदायूं ने उनके जीवन और व्यक्तित्व के बारे में अनेकानेक अपमानजनक टिप्पणियां की थी। आजाद भारत के इतिहासकारों ने भी उनके साथ न्याय नहीं किया। आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर भी  याद न करना मालवा की माटी और भरत भू के साथ अन्याय  होगा।

        इतिहास की किताबों में मालवा के कई राजा, महाराजा और योद्धाओं के नाम तो दर्ज है, लेकिन मालवा से अकबर को खदेड़ कर भगाने  वाले सम्राट हेमू विक्रमादित्य को बहुत कम इतिहासकार जानते हैं! नई पीढ़ी तो पूर्णतया हेमू विक्रमादित्य की वीरता से अनभिज्ञ है। मालवा के किसी भी भाग में हेमू विक्रमादित्य का स्मारक नहीं है। जबकि मालवा के इस अंतिम हिंदू राजा ने अकबर की विशाल सेना को हराकर  उन्नतीस  दिन दिल्ली पर राज कर अपना नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज किया था। 

 

         हेमू राजा किसी भी राज परिवार का सदस्य नहीं था।वह दिल्ली के पास रेवाड़ी  (हरियाणा) का रहने वाला था और जीविका चलाने के लिए दस्तकार का काम करता था और अपना व्यापार बढ़ाने के लिए मालवा में आकर बस गया था।  मालवा में उस समय बलाई समाज (जिन्हें बुनकर भी कहा जाता है) के लोग भी सूत कातने और कपड़  बूनने का काम करते थे। उनसे  साथ हाथ मिलाने पर उसका कपड़े का करोबार खुब फला फूला।  कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हेमू के पिता वल्लभ संप्रदाय के मानने वाले पूरणदाह जी के पुत्र थे और हेमू शेरशाह सूरी की सेना में सेन्य सामग्री को बेचता था। एक अन्य मान्यता के अनुसार रेवाड़ी में हेमू को हाथी पर बैठा और बलशाली देखकर शेरशाह सूरी अपने साथ उसे मालवा ले आए थे। हेमू एक चतुर और बुद्धिमान व्यक्ति था।अपनी बुद्धिमत्ता से मालवा प्रांत में प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी। सन् 1545 में शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद उसका बेटा इस्लाम शाह गद्दी पर बैठा तब  उसने बुद्धिमान हेमू  को  दिल्ली बाजार का नियंत्रक बना दिया । धीरे-धीरे अपने काम की बदौलत हेमू इस्लाम शाह का मुख्य सलाहकार के पद तक पहुंच गया और बाद में हेमू को अपना मुख्यमंत्री बना दिया गया। इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद उसके 12 वर्ष के बेटे  मार्क  को जब आदिल शाह ने मालवा का प्रमुख बनाया तो उसने हेमू को उसकी वीरता के कारण मुख्यमंत्री पद पर आसीन रखा। हेमू ने आदिलशाह के अफगानिस्तानी विद्रोहियों का डटकर  मुकाबला किया और 22 युद्ध जीते । 

 

      मुगलों की मालवा के सुरी शासकों से पुरानी दुश्मनी थी। हुमायूं ने सिकंदर शाह सूरी को हराकर मालवा में हुकुमत कायम की थी । एक अन्य युद्ध के समय आदिलशाह स्वयं चुनार भाग गया और हेमचंद्र को कुमार से लड़ने के लिए भेज दिया गया। जब 1555 में अफिमची  हूमायूं की  सीढियों से ढलक कर मौत हुई तो हेमू ने इसे अच्छा अवसर  मानकर मुगलों पर हमला बोल दिया और बयाना (वर्तमान भरतपुर जिले की ऐतिहासिक राजधानी  जिस पर  आदिल शाह का आधिपत्य था) से लेकर आगरा तक खूब छका छका भगाया। हेमू की चतुर युद्ध कौशल नीति को अपनाते हुए बंगाल से कुच किया और बयाना, इटावा, संभल, कालपी और नारनौल से मुगलों को खदेड़ दिया। घबराकर  मुगलों का गवर्नर इस्केन्दर  खां उजबेक आगरा से भाग खड़ा हुआ और हेमू ने मुगल सेना के नायक तरदीबेग ख़ान  को तुगलकाबाद में बुरी तरह हराया । इस विरता युद्ध कौशल के लिए उन्होंने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। 

 

       अपनी तुगलकाबाद की पराजय का बदला लेने के लिए अकबर ने 5 नवंबर 1556 में अपने लाव लश्कर के साथ  सेनापति ख़ान जमाना और बैरम खान को पानीपत के मैदान में निर्णायक युद्ध के लिए भेजा। जिसे इतिहास में पानीपत की दूसरी लड़ाई के नाम से जाना जाता है।  हेमू विक्रमादित्य ने बहादुरी से अकबर की सेना का सामना किया। सेना जीत के करीब ही थी, तभी एक तीर हेमू विक्रमादित्य की आंख में लगा और वह वीरगति को प्राप्त हुआ।

 

अकबर का रक्षक बैरम खान हेमू विक्रमादित्य के युद्ध कौशल से इतना आग बबूला था कि उसने मृत शरीर से वीर हेमू का सिर कलम करने का  अकबर से कहा। अकबर ने यह कहते हुए मना कर दिया कि श्मैं मृत आदमी का सिर कलम में नहीं करूंगाश्। तभी गुस्से में आकर बैरम खान ने मालवा क्षेत्र के अंतिम हिन्दू राजा का सिर काटकर का काबूल भिजवा दिया गया था।

     इस महान मालवा के अंतिम हिंदू राजा की याद में तैयार स्मारक हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भजनलाल  जी ने 29 दिसंबर 1991 को अनावरण किया । इस बहादुर योद्धा को मालवा की माटी में याद किया जाना चाहिए, ताकि मालवा की नई पीढ़ी  को उनके मनोबल और अकबर जैसे क्रुर और अत्याचारी राजा को हराने का जज्बा रखने की ताकत से परिचित कराया जा सके।

 

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