झालावाड के राजकीय संग्रहालय में बनेगी दो नई गैलेरी, जानिए क्यों है सबसे खास
State Museum
झालावाड। झालावाड के राजकीय संग्रहालय में दो नई गैलेरी बनाइ्र जाएगी। जिसमें झालावाड़ जिले के इतिहास व विकास कार्यों को चित्रों के माध्यम से दर्शाया जाएगा। जिला कलक्टर अजय सिंह राठौड ने गुरूवार को संग्रहालय के निरीक्षण के दौरान इस मामले में निर्देश दिए हैं।
जिला कलक्टर अजय सिंह राठौड़ ने गढ़ परिसर सहित राजकीय संग्रहालय एवं भवानीनाट्यशाला का भ्रमण कर इनके भवनों के जीर्णाेद्धार एवं साफ-सफाई के निर्देश संबंधित अधिकारियों को दिए। उन्होंने संग्रहालय में झालावाड़ जिले से संबंधित उपलब्धियों, विकास एवं इतिहास से संबंधित फोटो गैलेरी का निर्माण करने के निर्देश संग्रहालय के व्यवस्थापक को दिए। इसके लिए उन्होंने संग्रहालय में बंद पड़े कमरों की साफ-सफाई व रंग रोगन करवाने के निर्देश दिए। उन्होंने गढ भवन में उगी झाड़ियों को कटवाने व साफ-सफाई करवाने के निर्देश नगर परिषद् आयुक्त और जीर्णाेद्धार कार्य हेतु सार्वजनिक निर्माण विभाग के अधीक्षण अभियंता को निर्देश दिए।
जिला कलक्टर ने बताया कि आगामी दिनों में राजकीय संग्रहालय में दो नई गैलेरी बनाकर वहां झालावाड़ जिले के इतिहास व विकास कार्यों को चित्रों के माध्यम से दर्शाया जाएगा। इस दौरान प्रशिक्षु आईएएस एवं नगर परिषद् आयुक्त शुभम भैसारे, अतिरिक्त जिला कलक्टर सत्यनारायण आमेटा, जिला परिषद् के मुख्य कार्यकारी अधिकारी शम्भूदयाल मीणा सहित संबंधित विभागों के जिला स्तरीय अधिकारी उपस्थित रहे।
108 साल पुराना झालावाड म्यूजियम
पुरातत्व के प्रति झालावाड के रुझान का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि झालावाड़ में राजकीय संग्रहालय की स्थापना 1 जून 1915 ई. को गढ़ पैलेस के सम्मुख विशाल द्वार के बाहर एक भवन में की गई थी। वर्ष 2011-2012 में यह संग्रहालय गढ़ पैलेस के ऊपर अग्रभाग में स्थानान्तरित किया गया। वर्ष 2017-18 में संग्रहालय का विस्तार करते हुए पृष्ठ भाग में चित्रशाला तक विषयवार 8 दीर्घाओं का गठन किया गया। अब दो दीर्घाएं और जोडी जा रही है।
संग्रहालय की विशेषता है की सभी सामग्री को खुले-खुले आकर्षक पेडस्टलों और शोकेशों में प्रदर्शित किया गया है। इनमें लाइट और रोशनी की व्यवस्था है। साथ ही महलों की बेमिसाल कारीगरी देखने को मिलती है। वर्तमान में यह संग्रहालय न केवल हाड़ोती वरन राजस्थान के अच्छे आधुनिक संग्रहालयों में गिना जाने लगा है।
ये है आकर्षण
बौद्ध धर्म की स्थापना महात्मा बुद्ध द्वारा छठी शताब्दी ई. पू. में की गई थी। संग्रहालय देखने का क्रम इसी दीर्घा से आरम्भ होता है जो महलों के भू-तल पर संयोजित की गई है। इस दीर्घा में स्तूपाकार गुहा और चौत्य का सफेद रंग का सुंदर प्रतिरूप दर्शाया गया है। दीर्घा को बोधगम्य एवं रूचिकर बनाने के लिए क्षेत्रीय बौद्ध गुफाओं के अतिरिक्त सारनाथ के बौद्ध स्तूप एवं अन्य बौद्ध स्थलों की संरचनाओं के छायाचित्रों को आन्तरिक भाग में प्रदर्शित किया गया है। इस गुहा दीर्घा में सर अलेक्जेण्डर कनिंघम द्वारा तैयार किया गया कोलवी बौद्ध गुफाओं का नक्शा उल्लेखनीय है। यह स्तूप क्षेत्र की बौद्ध संपदा का आकर्षक रूप से दर्शन कराता है। कहा जाता है कि अवलीकर शासकों द्वारा झालावाड़ जिले में 6 से 7 वीं शती ई. में कोलवी, हाथ्यागौड़ एवं बिनायका में अनेक बौद्ध गुफाओं का निर्माण करवाया गया। ये गुफाएँ लेटेराइट पहाड़ियों को काटकर बनायी गयी हैं। इनमें विहारए स्तूपाकार वृहत मन्दिर एवं गुहाएं प्रमुख हैं। ये स्थल जिला मुख्यालय से दक्षिण-पश्चिम में लगभग 100 किमी. की दूरी पर अवस्थित हैं। कोलवी, हाथ्यागौड़ एवं बिनायका में स्थित गुफाएं स्तंभ एवं मूर्तियां केन्द्र सरकार द्वारा संरक्षित स्मारक घोषित हैं।
मूर्तिकला दीर्घा
बौद्ध दीर्घा के ऊपर प्रथम तल पर जैन मूर्तिकला दीर्घा का संयोजन किया गया है। इस दीर्घा में हाड़ौती क्षेत्र के पचपहाड़, अकलेरा और काकूनी से प्राप्त जैन तीर्थकर प्रतिमाओं और देवालय की धरणी को प्रदर्शित किया गया है। दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बन्धित ये प्रतिमाएं मध्यकालीन जैन मूर्तिकला का प्रतिनिधित्व करती हैं तथा तत्कालीन जैन धर्म की कला एवं संस्कृति का परिचय कराती हैं। पार्श्वनाथ की 11वीं सदी की एक प्रतिमा बहुत ही आकर्षक है।
इस दीर्घा में हाड़ौती क्षेत्र के झालरापाटन, रंगपाटन, दलहनपुर, मऊबोरदा, भीमगढ़ एवं काकूनी आदि स्थानों पर प्राचीन देवालय अथवा मन्दिर अवशेष विद्यमान हैं। ये स्थल यहां की समृद्ध मूर्तिकला के महत्वपूर्ण केंद्र हैं। इन स्थानों से अवाप्त कतिपय प्रतिमाओं को इस दीर्घा के चार खण्डों में संयोजित किया गया है। देवी प्रतिमा खण्ड. इसमें क्षेत्र की देवी प्रतिमाओं का प्रदर्शन किया गया है। प्रारम्भिक 5वीं ई. शताब्दी का गंगधार शिलालेख क्षेत्र में शाक्त पूजा के प्राचीनतम साक्ष्य प्रस्तुत करता है। चन्द्रभाग नदी के तट पर स्थित मन्दिर समूह के एक कक्ष में संग्रहित 8 एवं 9वीं शती ई. की लगभग एक दर्जन देवी प्रतिमाएं तत्कालीन शक्ति पूजा का बोध कराती है। इसी खण्ड में रंगपाटन, चन्द्रभागा, आदि स्थानों से अवाप्त प्रतिमाएं प्रदर्शित की गई हैं, इनमें स्थानक कृशकाय चामुण्डा, शीतला एवं महिषासुरमर्दिनी की विशाल प्रतिमाएं कला की दृष्टि से बेजोड़ हैं। ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में 8.9वीं शताब्दी में शाक्त पूजा का प्रचलन था।
दिक्पाल प्रतिमा खण्ड . इस दीर्घा में अष्ट दिक्पाल इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत, वरूण, वायु, कुबेर और ईशान की मूर्तियों को क्रमशः संयोजित किया गया है। द्विहस्त वरूण एवं इन्द्र की प्रतिमाएं इस खण्ड का आकर्षण हैं। मन्दिर स्थापत्य में अष्ट दिक्पाल की स्थापना से पूर्व चतुर्दिक दिक्पाल की परम्परा रही थी। यहां प्रदर्शित 9वीं सदी की दिकपाल वरुण की प्रतिमा बहुत सुंदर है। उल्लेखनीय है कि मन्दिर स्थापत्य में दिक्पाल प्रतिमाओं की स्थापना का विशेष उद्देश्य और महत्व होता है। दिकपाल अपनी दिशाओं के रक्षक देवता होते हैं, जो मन्दिर में दुष्ट एवं अपवित्र आत्माओं के प्रवेश को रोकते हैं। शिखर के बाहय जंघा भाग में दिक्पाल प्रतिमाएं स्थानक रूप में स्थापित की जाती हैं।
शैव प्रतिमा खंड रू इस दीर्घा में उमा-महेश्वर, नृत्यरत शिव एवं लकुलीश आदि की अद्भुत प्रतिमाएं प्रदर्शित हैं। यहां प्रदर्शित 10वीं शताब्दी की स्थानक शिव-पार्वती विवाह फलक प्रतिमा विशेष रूप से दर्शनीय है। क्षेत्र के कतिपय देवालयों में लकुलीश का अंकन तथा इसकी स्वतंत्र मूर्तियों से यह भी ज्ञात होता है कि यहां पाशुपत सम्प्रदाय का बोलबाला था। शीतलेश्वर महादेव मन्दिर, झालरापाटन के ललाटबिम्ब पर लकुलीश का अंकन इनका श्रेष्ठ उदहारण है। इस क्षेत्र में प्राचीन शैव देवालयों की बहुलता शैववाद की प्रधानता को रेखांकित करती है। झालरापाटन, रंगपाटन, गोवरधनपुरा ; प्राचीन गड़गच, भीमगढ़ एवं काकूनी के शैव देवालयों के अवशेष प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। सैन्धव सभ्यता से ही मूर्ति के रूप में शैव पूजा के साक्ष्य मिलते हैं।
वैष्णव एवं सौर प्रतिमा खण्ड रू इस खण्ड में वैष्णव एवं सौर प्रतिमाएं क्रमशः संयोजित की गई हैं। दीर्घा के दाएँ भाग में सौर प्रतिमाएँ प्रदर्शित की गई हैं। इनमें हरिहर, पितामह, मार्तण्ड, सूर्य.नारायण आदि की स्वतन्त्र प्रतिमाएँ इस दीर्घा की शोभा बढ़ा रही हैं। वैष्णव प्रतिमाओं में त्रिमुखी विष्णु, लक्ष्मीनारायण, नरवराह, चक्रपुरूष, हरिहर एवं शेषशायी विष्णु की प्रतिमाएं रूचिकर हैं। प्रतिमा दीर्घा में प्रदर्शित प्रतिमाएँ तत्कालीन धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति का बोध कराती हैं। यह दीर्घा हिन्दू देवी.देवताओं के विभिन्न अवतारों और रूपों का दिग्दर्शन कराती है। उल्लेखनीय है यहां शैव धर्म के बाद वैष्णव धर्म की भी लोकप्रियता थी।
झालरापाटन का पद्मनाभ मन्दिर इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। भीमगढ़, काकूनी एवं रंगपाटन के ध्वंसावशेषों में वैष्णव मन्दिरों के संरचनात्मक अवशेष मिलते हैं। क्षेत्र में कृष्ण लीला विषयक प्रतिमाएं भी मिली हैं जो भागवत भक्ति की निरन्तरता की द्योतक हैं। तत्कालीन जनमानस शैव एवं वैष्णव पूजा के साथ-साथ सूर्यदेव की उपासना में भी विश्वास रखता था। क्षेत्र में मिले सूर्य देवभवनों के अवशेष और सौर प्रतिमाएं इसकी पुष्टि करते हैं। सूर्य देव को संयुक्त प्रतिमाओं में भी उत्कीर्ण किया जाता था। यह तत्कालीन जनसामान्य की बहुदेववाद की अवधारणा और आस्था को प्रकट करता है।
देवालय दीर्घा
इस दीर्घा में दर्शकों को देवालय के प्रमुख अंगों का सामान्य ज्ञान कराने के उद्देश्य से दो मन्दिरों की योजना रूपरेखा आकर्षक रूप से प्रस्तुत की गई है जो देखते ही बनती है। इन पर मन्दिर के वास्तुखण्डों और मूर्तिशिल्प को प्रदर्शित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस दीर्घा के चारों कोण भागों में क्रमशः गणेश, ब्रह्मा, अर्द्धनारीश्वर एवं मध्य में महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमाओं को प्रदर्शित किया गया है। प्राचीन मन्दिर स्थापत्य के ग्रंथों में दिए गए मानदंडों के अनुसार योग्य व्यक्ति की देखरेख में निर्मित किए जाते थे। प्राचीन मंदिरों में कई अंग-उपांग होते हैं।
चित्रकला दीर्घा
इस दीर्घा के शुरू में बारहमासा की चित्रावली प्रदर्शित है। इन चित्रों में नायक.नायिका के मनोभावों का चित्रण सजीव प्रतीत होता है। इन चित्रों में माह का प्रकृति पर प्रभाव तथा तद्नुरूप मानव एवं पशु-पक्षियों के क्रिया कलापों का सुन्दर आलेखन है। वेद, वेदांग, विद्याओं तथा शास्त्र स्वरूपों के प्रदर्शित चित्रों में गूढ रहस्य है। ये रंगचित्र तत्कालीन धार्मिक एवं बौद्धिक स्थिति के परिचायक हैं। विष्णु के कतिपय स्वरूपों, कृष्णलीला एवं लोक-जीवन के प्रसंगों पर आधारित लघुचित्रों को भी इस दीर्घा में यथेष्ठ स्थान दिया गया है। बूंदी शैली की विशेषताओं से युक्त ये चित्र अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
अस्त्र शस्त्र दीर्घा
अस्त्र-शस्त्रों को एक पृथक दीर्घा में संयोजित किया गया है। ये हथियार मुगलकाल से लेकर 19वीं शताब्दी तक के हैं। इनमें विभिन्न युद्धों में काम लिए गए आधुनिक हथियार उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त तत्कालीन ढाल-तलवार एवं तीर.कमान आदि को भी विषयवार शोकेसों में प्रदर्शित किया गया है। कतिपय तलवारों पर अरबी भाषा में लिखावट भी उत्कीर्ण है। तलवारों एवं छुरियों के दस्ते कलात्मक हैं। कतिपय तलवारों पर स्वर्ण एवं रजत का कार्य से किया गया है। कलात्मक ढालों आदि पर तहनिशां एवं जरनिशां का कार्य भी दर्शनीय है। कई युद्धों के साक्षी ये आयुध शौर्य एवं पराक्रम के प्रतीक हैं।
परिधान दीर्घा
वस्त्रों का आविष्कार मानव सभ्यता से जुड़ा है। सभ्यता के विकास के साथ-साथ विविध प्रकार के वस्त्र बनने लगे। आर्थिक प्रगति के फलस्वरूप गुप्तकाल में चीन से रेशम का आयात कर वस्त्रों का उत्पादन किया जाने लगा था। कुलीन व्यक्ति बहुमूल्य वस्त्र धारण करते थे। अंग्रेजी शासन में बने वस्त्रों पर विदेशी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इस समय अभिजात वर्ग द्वारा सूट.बूट एवं शेरवानी आदि पहने जाते थे। इस दीर्घा में तत्कालीन समय की कसीदाकारी युक्त अंगरखी, रेशमी दुपट्टा एवं रूमाल आदि प्रदर्शित है। दीर्घा में सांभर के चमड़े से निर्मित कुर्ता-पायजामा पर की गई नक्काशी विशेष रूप से आकर्षित करती है। दीर्घा में ही सितारों से सुसज्जित हाथ का पंखा भी प्रदर्शित है। ये परिधान तत्कालीन वेशभूषा की झलक प्रस्तुत करते हैं।
विविध कला दीर्घा
इस दीर्घा में हस्तलिखित ग्रन्थ, कागज के चित्रात्मक लिपि के ग्रंथ और ताड़ की लकड़ी के पन्नों पर लिखे ग्रंथ हस्तनिर्मित सामग्री तथा भूतपूर्व राजा-महाराजाओं के चित्र प्रदर्शित किये गये हैं। इस दीर्घा के मध्य भाग में हस्तलिखित ग्रन्थ एवं हस्तनिर्मित सामग्री को क्रमशः टेबल शोकेसों में प्रदर्शित किया गया है। इनमें गीतगोविन्द, मधुमालती, अवतार चरित, शालीहोत्र, शाहनामा एवं अश्व चिकित्सा आदि हस्तलिखित सचित्र ग्रन्थ प्रदर्शित हैं। इस दीर्घा में प्रदर्शित सामग्री में 19 एवं 20वीं शताब्दी में निर्मित संगमरमर की कलात्मक कार्य की कलाकृतियां, हाथी, घोड़ा, देवी दुर्गा की प्रतिमा तथा हाथीदांत के बने पंखा, दूरबीन, चाकू आदि उल्लेखनीय हैं। इसके साथ ही कलात्मक ग्लोब दीपक भी प्रदर्शित है।
इस दीर्घा के अन्तिम भाग में प्रारम्भिक साईकिल का एक नमूना प्रदर्शित है। दीवारों पर हाड़ोती के शासकों के साथ-साथ देश की विभिन्न रियासतों के शासकों के बड़े-बड़े आवाक्ष रंगीन चित्र देखते ही बनते हैं। इनके मध्य कक्षों की दीवारों पर जगह-जगह विभिन्न चटक रंगों के कांच से बने दरवाजे और झरोखे संग्रहालय की सुंदरता में चार चांद लगाते हैं।
चित्रशाला एवं शीशमहल
यह इस महल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग है। चित्रशाला में निर्माण के समय के रामायणए कृष्णलीलाए नायक.नायिकाए महाभारत एवं झालावाड़ के शासकों के भित्ति चित्रों का रोचक आलेखन है। बीच-बीच में श्रीनाथजी के चित्रों की भी बहुलता है। राम-राज्याभिषेक, रावण द्वारा सीताहरण और रामसेतु बनाने के दृश्य आदि के चित्र उल्लेखनीय हैं। ये चित्र नाथद्वारा शैली में बनाए गए हैं। झालावाड़ के शासक भवानी सिंह (1899-1929 ई.) के शासनकाल में नाथद्वारा शैली के प्रसिद्ध चित्रकार घासीराम, हरदेव शर्मा एवं उनके दल द्वारा चित्रित किए गए थे। चित्रशाला का ऊपरी भाग शीशमहल है। शीशमहल का निर्माण 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में किया गया था। इस महल की दीवारों व छत भाग पर शीशे में चित्रकारी द्रष्टव्य है। शीशमहल में पुष्पाकृतियों एवं लता-पत्र प्रकृति के साथ वन्यजीव शाही सवारी, दरबार, पर्व, उत्सव संगीत, वादन, नृत्य आदि का अद्भुत अलंकरण है। पांच मंजिले महल में बनी रंगशालाएं, झरोखे, जनानी ड्योढ़ी, दरीखाना, सभागार भी दर्शनीय हैं। महल के कोनों पर अष्टकोणीय छतरियां निर्मित हैं। संग्रहालय सप्ताह के सभी दिनों में प्रातः 9.45 बजे से सांय 5.15 बजे तक दर्शकों के अवलोकनार्थ खुला रहता है।
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