भारत और अफ्रीका के सम्बन्धों से चीन लगेगा झटका
-अफ्रीकन यूनियन को जी-20 की सदस्यता मिली तो भारत को मिलेगी नई ताकत
प्रद्युम्न शर्मा
अफ्रीकन यूनियन सहित दक्षिण एशिया और दक्षिण चीन सागर में चीन का दखल घटाने में जी-20 समिट की अध्यक्षता को भारत के लिए बडे अवसर के रूप में देखा जा रहा है। सम्मेलन में अफ्रीकन यूनियन को शामिल करने और इसका श्रेय लेने के लिए भारत ने तैयारी कर ली है। यदि ऐसा हुआ तो ग्लोबल साउथ का नेतृत्व करने में भारत को नई ताकत मिलेगी।
आफ्रीका के 55 देशों का संघ अफ्रीकन यूनियन के नाम से जाना जाता है। नौ और दस सितंबर को नई दिल्ली में आयोजित जी-20 सम्मेलन में इस संगठन को सदस्यता मिल जाती है तो ये ‘ग्लोबल साउथ’ का नेतृत्व करने की भारत की महत्वाकांक्षा को नई ताकत दे सकती है। भारत को इस बात का श्रेय मिलेगा कि उसकी मेजबानी में अफ्रीकन यूनियन को जी-20 की सदस्यता मिली। जबकि ग्लोबल साउथ का नेता बनने के लिए चीन और भारत में एक होड़ चल रही है।
मोटे तौर पर भारत, चीन, ब्राज़ील और अफ्रीका को ‘ग्लोबल साउथ’ कहा जाता है। ये कोई भौगोलिक विभाजन नहीं है क्योंकि ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड भी दक्षिणी गोलार्ध में हैं। लेकिन ये देश ग्लोबल साउथ का हिस्सा नहीं हैं। ग्लोबल साउथ एक भौगोलिक और भू-राजनैतिक पहलू है।
विदेश नीति भिन्न
भारत और चीन की विदेश नीति में शुरू से ही अंतर रहा है। यह राजनीतिक व्यवस्था और विचार से प्रभावित रही। भारत की विदेश नीति समावेशी रही है। जबकि चीन की विदेश नीति में बड़े-छोटे का भाव रहा और विस्तारवाद हावी रहा। भारत की समावेशी नीति के कारण ही गुटनिरपेक्ष देशों के संगठन से लेकर सार्क जैसे संगठनों में भारत का प्रभाव रहा। जबकि चीन ऐसे संगठनों से दूर रहा। इसी नीति के कारण अब चीन अपनी नीतियों को बदलने की कोशिश कर रहा है। क्योंकि उसे लगता है कि विकासशील और कम विकसित देशों का करने में उसकी नीतियां बाधक है और भारत उसका सबसे बडा प्रतिद्वंद्वी है। क्योंकि चीनी की मौजूदगी हमेशा अफ्रीकन और छोटे देशों में कारोबारी लक्ष्यों को पूरा करने के लिए ही रही है। कुछ दशकों से चीन छोटे देशों में निवेश कर वहां के एनर्जी स्रोतों पर कब्जा जमा रहा है। अब चीन की निगाह अफ्रीका के गरीब देशों पर है। जबकि इन देशों से भारत के समन्ध केवल कारोबारी और संसाधनों के दोहन के लिए नहीं रहे। भारत ने बहुत पहले ही अफ्रीका में अपना सॉफ्ट पावर बढ़ाना शुरू कर दिया था। भारत ने अफ्रीका में 1950 के बाद ही अपने संबंधों को बेहतर बनाना शुरू कर दिया था। जबकि चीन का रवैया वहां मौकापरस्ती का रहा। जब पता चला कि वहां भरपूर प्राकृतिक संसाधन है तो चीन ने वहां तेजी से निवेश शुरू कर दिया। जबकि भारत ने वहां हमेशा अंतरराष्ट्रीय साझीदार और सहयोगी बनकर काम किया। अफ्रीका के देश घाना, तंजानिया, कोंगो, और नाइजीरिया जैसे देशों में भारतीय पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं। जबकि चीनियों का इन देशों में कोई पुराना इतिहास नहीं है।
यूरोप की नीति भी चीन जैसी
अफ्रीका के अधिकतर देश आज भी बेहद गरीब है और उन पर उपनिवेशवाद की छाया है। इन देशों का अंतरराष्ट्रीय संबंध यूरोप और अमेरिका से रहा जिन्होंने कभी उन्हें आत्मनिर्भन नहीं होने दिया। आज भी वे इन देशों को अपने ऊपर निर्भर देखना चाहते हैं। यूरोपीय देश वहां हमेशा से ही सोना, हीरा बहुमूल्य धातुओं, पेट्रोल और लकड़ी का दोहन करते रहे हैं।
यही कारण है कि ये देश वो अब इटली, फ्रांस और जर्मनी देशों के बजाय भारत, जापान जैसे एशियाई देशों के अलावा मलेशिया, सिंगापुर और फिलीपींस जैसे आसियान देशों पर भरोसा कर रहे है। चीन से भी उनके सम्बन्ध अधिक पुराने नहीं हैं।
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